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हमारे दुराग्रह और व्यवस्था

खुरपेंच.कोम
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– संजीव परसाई
व्यवस्थायें भंग रहना हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग हो चला है। अच्छी भली चल रहीं व्यवस्थाएं तक हमारे पूर्वाग्रह की शिकार बन रही हैं। सरकार चल तो रही है पर व्यवस्था सही नहीं है। महंगाई कम तो हुई है पर व्यवस्था ठीक नहीं है। भ्रष्टाचार पर लगाम तो लगी है पर व्यवस्था ठीक नहीं है। अच्छे दिन पर कन्फ्यूजन भी इसी वजह से बना हुआ है।
सामान्य तौर से एक भारतीय के जीवन की सभी व्यवस्थाएँ भंग होती हैं। वह भंग व्यवस्था के साथ ही इस संसार में आता है। दरअसल उसका पैदा होना ही अव्यवस्था का परिणाम होता है। इसके बाद जीवन-यापन, शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, परिवार आदि सब कुछ अव्यवस्था की देन होते हैं। अव्यवस्था जीवनशैली में भी प्रतीत होता है। व्यवस्था संचालकों और उसके पोषकों में एक खास अंतर होता है। व्यवस्था के तथाकथित संचालक, संचालन के काम के फलस्वरूप ग्रीन टी. कैफेचिनो आदि पाते हैं। हमारा व्यवस्था संचालन में नाम मात्र का भी योगदान नहीं होता है तो हम लल्लू की चाय के हकदार हैं। जो असल में चाय का प्रतीक होती है।
व्यवस्था मूर्खता-बौद्धिकता, पूर्वाग्रह-दुराग्रह, दुर्भावना-सद्भावना आदि के मेल से बनती है। यहीं से विवाद शुरू होता है, और व्यवस्था अव्यवस्था में बदल जाती है। सरकार ऐसे दुराग्रहियों को चाय से भी दूर रहने की सलाह देते हुए नीम का काढ़ा प्रस्तुत करती है। व्यवस्था में खामियां निकालने वाले ये लोग ऋणात्मक ऊर्जा का स्त्रोत होते हैं। इस ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा में एक समानता है कि दोनों गुणात्मक रूप से बढ़ती हैं। इसी के चलते लोग अव्यवस्था के पोषक बन जाते हैं। ये ही वे लोग हैं जो लोगों को ढंग के कपड़े भी नहीं पहनने देते। ये लोग प्रधानमंत्री से भी अपेक्षा रखते हैं कि वे सेल से 150 रू का कुर्ता खरीदें और वही पहनकर व्हाइट हाउस में जाएं। सरकार इन्हीं लोगों की संतुष्टि के लिए हर साल बजट जनता को दिखाती है। इन्हें सरकार पर भरोसा तो होता नहीं, लेकिन मीनमेख निकालना इनका अधिकार है। सरकार इनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए ही बजट, लोकसभा व विधानसभा सत्र, विज्ञप्तियां आदि गतिविधियाँ करती है। पूर्वाग्रही इन्हें मीडिया में फुटेज़ जुगाड़ने की गतिविधि मानते हैं। कभी कभी वे संपूर्ण व्यवस्था को मीडिया का प्रायोजित कार्यक्रम कहकर भी नकार देते है।व्यवस्था हनन के इन पैराकोरों की वजह से ही उन्हें अपने अखबारों में हत्या, डकैती, बलात्कार, भ्रष्टाचार, कुव्यवस्था, चरित्र हनन की खबरें पहले दूसरे पन्नों पर डालनी पड़ती है।
आखिर कब माना जाए कि अब व्यवस्था बन चुकी है? इस सवाल पर तमाम विशेषज्ञों की अलग अलग राय है। नीतिनिर्धारकों का एक वर्ग अव्यवस्था को ही व्यवस्था मानने पर जोर देता है। ऑफ़ द रिकार्ड वे स्वीकार करते हैं कि जिस प्रकार कुत्तों को घी हजम नहीं होता है, उसी प्रकार हमारा समाज भी अव्यवस्था में जीने का अभ्यस्त हो गया है। अव्यवस्था हमारे डीएनए में जमकर बैठ गयी है। भ्रष्टाचार को ही देख लो, सतही तौर पर हर जगह भ्रष्टाचार दिखाई देता है। दूसरी ओर इसी भ्रष्टाचार के दम पर कितने घर, परिवार, दल आदि पल रहे हैं। समाज का एक वर्ग अपनी भीड़ की ताकत के बल पर किसी दूसरे का हक खाने पर आमादा है। भोली अव्यवस्था ने कई निकम्मों को काम धंधे से लगा दिया है। कुछ बौद्धिक जगलर अव्यवस्था को भ्रष्टाचार की जड़ मानते हैं। जबकि इसी ने अर्थव्यवस्था में पैसे को पानी की तरह बहने का गुर सिखाया है। सो इतिसिद्धम् : अव्यवस्था हमारे जीवन का अविभाज्य अंग है।
हमें चिंता करना चाहिए कि अगर किसी दिन सब कुछ व्यवस्थित हो गया तो क्या होगा? शायद हमारा समाज बिखर जाए। जब जब भी व्यवस्था सुधार की बात होती है, मैं अंदर तक कांप जाता हूँ। हमको भी यह मान लेना चाहिए कि यह अव्यवस्था ही हमारे जीवन का मूल आधार है। अगर यह नहीं रही तो हमारे जीवन से एक अनिवार्य रस खतम हो जाएगा। हम लोगों के पास बात करने, सोचने के लिए भी विषय खत्म हो जाएंगे। सोशल मीडिया का तो अस्तित्व ही अव्यवस्था बनाम व्यवस्था है। अतः फेसबुकियों व ट्वीटियों को भी अव्यवस्था बनाए रखने में अपना योगदान देना चाहिए, आखिर उनके भी तो अस्तित्व का सवाल है।

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